नैनीताल – चम्पावत के देवीधुरा क्षेत्र में लगे प्राचीन बग्वाल मेले में पूर्णिमा को श्रद्धालुओं की भीड़

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रिपोर्ट –  कान्ता पाल/ नैनीताल – चम्पावत से 65 किमी दूर पाटी तहसील के देवीधुरा क्षेत्र में आयोजित होने वाल बग्वाल मेला जिसे पाषाण यु़द्ध भी कहा जाता है अपने में दुनिया में आयोजित होने वाल एक अनोखा मेला है। मेले की प्राचीन मान्यता है कि इस क्षेत्र में पहले नरवेद्यी यज्ञ हुवा करता था जिसमें मां बाराही को खुश करने के लिए अष्ट बली दी जाती थी। एक समय ऐसा आया कि एक घर में एक वृ़द्ध महिला का एक ही पुत्र था। जिसे वह बहुत प्यार करती थी। वृद्ध महिला ने मां बाराही को याद किया रात्री मां बाराही ने वृद्ध महिला को दर्शन दिए और बग्वाल मेले के आयोजन की बात कही। और कहा कि जब तक एक आदमी के बराबर रक्त नहीं बहता तब तक बग्वाल मेले चलना चाहिए। तब से मां बाराही धाम में बग्वाल मेले का आयोजन होने लगा। जिसमें चार खाम सात लोक के लोग भाग लेते हैं। पिछले दो वर्षो से सुप्रीमकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद बग्वाल में पत्थरों की जगह फल और फूलों का प्रयोग किया जाता है तथा रक्त दान शिविर लगाया जाता है। मेले में देश विदेश हजारों की संख्या में श्रद्धालु और पर्यटक मेला देखने पहुंचते हैं। मंदिर में महाभारत कालीन अवशेष भी देखने को मिलते हैं जिसमें एक भारी भरकम शिला है जिसे भीम शिला कहा जाता है। सैलानियों के बीच भी बग्वाल का आकर्षण बढ़ता जा रहा है।  फूल- फलों की इस तूफानी बरसात से डर भी लगता है लेकिन सबसे ज्यादा कौतूहल की बात ये है कि लोगों को चोट आती है, गिरते हैं लेकिन फिर इस खेल में शामिल हो जाते हैं। बगवाल देवीधुरा मेले को ऐतिहासिकता कितनी प्राचीन है इस विषय में मत-मतान्तर हैं । लोक मान्यता है कि किसी समय देवीधुरा के सघन बन में बावन हजार वीर और चैंसठ योगनियों के आतंक से मुक्ति देकर स्थानीय जन से प्रतिफल के रुप में नर बलि की मांग की। जिसके लिए निश्चित किया गया कि पत्थरों की मार से एक व्यक्ति के खून के बराबर निकले रक्त से देवी को तृप्त किया जाता था, पत्थरों की मार प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा को आयोजित की जाएगी । लोक विश्वास है कि क्रम से महर और फव्यार्ल जातियों द्वारा चंद शासन तक यहाँ श्रावणी पूर्णिमा को प्रतिवर्ष नर बलि दी जाती थी । इतिहासकारों का मानना है कि महाभारत में पर्वतीय क्षेत्रों में निवास कर रही एक ऐसी जाति का उल्लेख है जो अश्म युद्ध में प्रवीण थी तथा जिसने पाण्डवों की ओर से महाभारत के युद्ध में भाग लिया था । ऐसी स्थिति में पत्थरों के युद्ध की परम्परा का समय काफी प्राचीन ठहरता है । कुछ इतिहासकार इसे आठवीं-नवीं शती ई. से प्रारम्भ मानते हैं । कुछ खस जाति से भी इसे सम्बिन्धित करते हैं ।बगवाल की इस परम्परा को वर्तमान में महर और फव्यार्ल जाति के लोग ही अधिक सजीव करते हैं । इनकी टोलियाँ ढोल, नगाड़ो के साथ किंरगाल की बनी हुई छतरी जिसे छन्तोली कहते हैं, सहित अपने-अपने गाँवों से भारी उल्लास के साथ देवी मंदिर के प्रांगण में पहुँचती हैं । सिर पर कपड़ा बाँध हाथों में लट्ठ तथा फूलों से सजा फर्रा-छन्तोली लेकर मंदिर के सामने परिक्रमा करते हैं । इसमें बच्चे, बूढ़े, जवान सभी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं ।

परम्परागत रुप से चारों खाम (ग्रामवासियों का समूह) गढ़वाल चम्याल,वालिक तथा लमगडिया के द्वारा सम्पन्न किया जाता है । मंदिर में रखा देवी विग्रह एक सन्दूक में बन्द रहता है । उसी के समक्ष पूजन सम्पन्न होता है । यही का भार लमगड़िया खाम के प्रमुख को सौंपा जाता है । जिनके पूर्वजों ने पूर्व में रोहिलों के हाथ से देवी विग्रह को बचाने में अपूर्व वीरता दिखाई थी । इस बीच अठ्वार का पूजन होता है। जय जयकार के बीच डोला देवी मंदिर के प्रांगण में रखा जाता है । चारों खाम के मुखिया पूजन सम्पन्न करवाते है । गढ़वाल प्रमुख श्री गुरु पद से पूजन प्रारम्भ करते है । चारों खामों के प्रधान आत्मीयता, प्रतिद्वन्दिता, शौर्य के साथ बगवाल के लिए तैयार होते हैं । वीरों को अपने-अपने घरों से महिलाये आरती उतार, आशीर्वचन और तिलक चंदन लगाकर भेजती है ।